सबसे पहले तो मैं ये साफ कर दूं कि भारतीय संविधान ने पत्रकारों को अभिव्यक्ति या असहमति के बारे में कोई विशेषाधिकार नहीं दिया है । अभिव्यक्ति या असहमति का अधिकार एक पत्रकार को भी उतना ही है, जितना देश के किसी भी दूसरे आम नागरिक को।
गाजियाबाद से सटे लोनी में एक घटना हुई जिसमें एक मुस्लिम बुजुर्ग को पीटते हुए दिखाया गया। मीडिया और सोशल मीडिया में खबर फैली (या फैलाई गई) कि बुजुर्ग को “जय श्रीराम” न बोलने के कारण पीटा गया। यूपी पुलिस का दावा है कि वीडियो में मार खाते हुए बुजुर्ग ने एक दूसरे मुसलमान को “ताबिज” बेची थी । उसी को लेकर झगड़ा था । इसके बाद सबसे पहले समाजवादी पार्टी के एक स्थानीय नेता ‘इदरीस’ ने इसे “कम्युनल” रंग देकर सोशल मीडिया में पोस्ट किया। पुलिस ने इदरीस को गिरफ्तार कर लिया है।
उत्तर प्रदेश की पुलिस ने लोनी की इस घटना को सांप्रदायिक रंग देकर सोशल मीडिया पर फैलाने के आरोप में लेखक सबा नकवी, द वायर, द अल्ट न्यूज़ के जुबैर अहमद, राना अय्यूब पर FIR दर्ज की है। इसके साथ ही पुलिस ने ट्विटर इंडिया को भी आरोपी बनाया है। पुलिस का कहना है कि हमने बार-बार ट्विटर इंडिया से इन भ्रामक पोस्ट को हटाने की अपील की, लेकिन ट्विटर ने न तो इन पोस्ट को हटाया, न ही इन्हें Manipulated का टैग दिया।
इस घटना के अलावा भी एक और अफवाह फैलाई गई जिसमें एक RTI के हवाले से ये दावा किया गया कि कोरोना वैक्सीन में “नवजात बछड़े का सीरम” मिलाया जाता है और इस सीरम को प्राप्त करने के लिए मोदी सरकार ने बछड़ो का कत्ल करवाया” । इस झूठ को फैलाने के लिए यूपी से जुड़े कांग्रेस के तीन नेताओं को आरोपी बनाया गया है। हालांकि ये जानकारी मेरे पास नहीं है कि उनके खिलाफ FIR हुई है या नहीं।
एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया सहित पत्रकारों का एक बड़ा तबका यूपी पुलिस द्वारा पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं पर की गई कार्रवाई को ‘अभिव्यक्ति और असहमति के अधिकार’ का हनन बता रहा है।
मोदी-योगी सरकार द्वारा पत्रकारों के उत्पीड़न के ट्रैक रिकॉर्ड को देखते हुए ये आरोप गलत भी नहीं लगते । खासकर, विनोद दुआ प्रकरण के बाद सुप्रीम कोर्ट ने जो टिप्पणी की, वो महत्वपूर्ण हैं। कोर्ट ने कहा कि “आलोचना का दायरा तय है, और उस दायरे में रहकर सरकार की आलोचना राजद्रोह नहीं” ।
दूसरा, मोदी सरकार के केंद्र की सत्ता संभालने के बाद 559 पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के खिलाफ राजद्रोह की धाराएं लगाई गईं, लेकिन सरकार इनमें से सिर्फ 10 को ही दोषी साबित कर सकी । तो सवाल यह भी है कि क्या सिर्फ राजनीतिक प्वाइंट स्कोर करने के लिए राजद्रोह की धाराएं लगा दी गईं? यहां ये भी गौर ध्यान रखना होगा कि ‘राजद्रोह’ हमेशा ‘राष्ट्रदोह’ नहीं होता।
Conclusion :
जिस प्रकार मोदी-योगी की सरकार ने राजद्रोह और UAPA की धाराओं को Political Tool की तरह इस्तेमाल किया, वो अति है । लेकिन ये भी सच है कि पत्रकारों का एक तबका पत्रकारिता के कथित दायरे से आगे बढ़कर ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ का बेजा फायदा उठाने लगा । सरकार की आलोचना करते-करते वे “टूलकिट” तैयार करने लगें, और लोकतंत्र के नारे लगाते-लगाते वे जाति और सांप्रदायिक जहर बोने लगे । कुछ पत्रकार तो फैक्ट्स के साथ सरकार की आलोचना करते-करते खुद नफरत पालने लगे और देश की आलोचना तक पहुंच गए।
हमें देश में चल रहे राजनीतिक और वैचारिक युद्ध को “श्रीकृष्ण” के रूप में निर्विकार भाव से देखना है, न कि खुद शस्त्र उठाकर इसमें शामिल हो जाना है । नारद तो देव और दानव दोनों से समान रूप से मिलते हैं। लेकिन नारद का काम वज्र उठाना नहीं है। ये काम हम इंद्र के लिए छोड़ दें ।