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नियोगी रिपोर्ट और धर्मांतरण में ईसाई मिशनरियों की भूमिका

कई वर्ष पहले दूर दक्षिण भारत से बाबा माधवदास नामक एक संन्यासी दिल्ली में ‘वॉयस ऑफ इंडिया’ प्रकाशन के कार्यालय पहुँचे। उन्होंने सीताराम गोयल की कोई पुस्तक पढ़ी थी, जिसके बाद उन्हें खोजते-खोजते वह आए थे।

मिलते ही उन्होंने सीताराम जी के सामने एक छोटी सी पुस्तिका रख दी। यह सरकार द्वारा 1956 में बनी सात सदस्यीय जस्टिस नियोगी समिति की रिपोर्ट का एक सार-संक्षेप था। यह संक्षेप माधवदास ने स्वयं तैयार किया, किसी तरह माँग-मूँग कर उसे छपाया और तब से देश भर में विभिन्न महत्वपूर्ण, निर्णयकर्ता लोगों तक उसे पहुँचाने, और उन्हें जगाने का अथक प्रयास कर रहे थे। किंतु अब वह मानो हार चुके थे और सीताराम जी तक इस आस में पहुँचे थे कि वह इस कार्य को बढ़ाने का कोई उपाय करेंगे।

माधवदास ने देश के विभिन्न भागों में घूम-घूम कर ईसाई मिशनरियों की गतिविधियाँ स्वयं ध्यान से देखी थीं। उन्हें यह देख बड़ी वेदना होती थी कि मिशनरी लोग हिन्दू धर्म को लांछित कर, भोले-भोले लोगों को छल से जाल में फँसा कर, दबाव देकर, भावनात्मक रूप से ब्लैकमेल कर आदि विधियों से ईसाइयत में धर्मांतरित करते थे। सबसे बड़ा दुःख यह था कि हिन्दू समाज के अग्रगण्य लोग, नेता, प्रशासक, लेखक इसे देख कर भी अनदेखा करते थे।

यह भी माधवदास ने स्वयं अनुभव किया। वर्षों यह सब देख-सुन कर अब वे सीताराम जी के पास पहुँचे थे। सीताराम जी ने उन्हें निराश नहीं किया। उन्होंने न केवल जस्टिस नियोगी समिति रिपोर्ट को पुनः प्रकाशित किया, वरन ईसाई मिशनरियों की गतिविधियों की ऐतिहासिक क्रम में समीक्षा करते हुए ‘छद्म-पंथनिरपेक्षता, ईसाई मिशन और हिन्दू प्रतिरोध’ नामक एक मूल्यवान पुस्तिका भी लिखी।


पर ऐसा लगता है कि हिन्दू उच्च वर्ग की की काहिली और अज्ञान पर शायद ही कुछ असर पड़ा हो।उदाहरण के लिए, सात वर्ष पहले जब ‘तहलका’ ने साप्ताहिक पत्रिका आरंभ की तो अपना प्रवेशांक (7 फरवरी 2004) भारत में ईसाई विस्तार के अंतर्राष्ट्रीय षड्यंत्र पर केंद्रित किया। इस के लिए अमेरिकी सरकार तथा अनेक विदेशी चर्च संगठनों द्वारा भारी अनुदान, अनेक मिशनरी संगठनों के प्रतिनिधियों से बात-चीत, उनके दस्तावेज, मिशनरियों द्वारा भारत के चप्पे-चप्पे का सर्वेक्षण और स्थानीय विशेषताओं का उपयोग कर लोगों का धर्मांतरण कराने के कार्यक्रम आदि संबंधी भरपूर खोज-बीन और प्रमाण ‘तहलका’ ने जुटा कर प्रस्तुत किया था। किंतु उस पर भारतीय नेताओं, बुद्धिजीवियों, प्रशासकों की क्या प्रतिक्रिया रही? कुछ नहीं, एक अभेद्य मौन! मानो उन्होंने कुछ न सुना हो। जबकि मिशनरी संगठनों में उस प्रकाशन से भारी चिंता और बेचैनी फैली (क्योंकि वे उस पत्रिका को संघ-परिवार का दुष्प्रचार बताकर नहीं बच सकते थे!)।

उन्होंने तरह-तरह के बयान देकर अपना बचाव करने की कोशिश की। मगर हिन्दू समाज के प्रतिनिधि निर्विकार बने रहे! हमारे जिन बुद्धिजीवियों, अखबारों, समाचार-चैनलों ने उसी तहलका द्वारा कुछ ही पहले रक्षा मंत्रालय सौदों में रिश्वतखोरी की संभावना का पर्दाफाश करने पर खूब उत्साह दिखाया था, और रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडीस समेत सबके इस्तीफे की माँग की थी। वही लोग उसी अखबार के इस पर्दाफाश पर एकदम गुम-सुम रहे। मानो इस में कोई विशेष बात ही न हो।ठीक यही पचपन वर्ष पहले नियोगी समिति की रिपोर्ट आने पर भी हुआ था। जहाँ मिशनरी संगठनों में खलबली मच गई थी, वहीं हमारे नेता, बुद्धिजीवी, अफसर, न्यायविद सब ठस बने रहे। अंततः संसद में सरकार ने यह कह कर कि समिति की अनुशंसाएं संविधान में दिए मौलिक अधिकारों से मेल नहीं खाती, मामले को रफा-दफा कर दिया। कृपया ध्यान दें – किसी ने यह नहीं कहा कि समिति का आकलन, अन्वेषण, तथ्य और साक्ष्य त्रुटिपूर्ण है। बल्कि सबने एक मौन धारण कर उसे चुप-चाप धूल खाने छोड़ दिया। (उसके तैंतालीस वर्ष बाद, 1999 में, यही जस्टिस वधवा कमीशन रिपोर्ट के साथ भी हुआ, जिसने उड़ीसा में ऑस्ट्रेलियाई मिशनरी ग्राहम स्टेंस की हत्या के संबंध में विस्तृत जाँच की थी)। हिन्दू सत्ताधारियों व बौद्धिक वर्ग की इस भीरू भंगिमा को देख कर सहमे हुए मिशनरी संगठनों का साहस तुरत स्वभाविक रूप से बढ़ गया।

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