हमने जुलाई की शुरुआत में हिरासत में फादर स्टेन स्वामी के निधन को देखा। लेकिन शायद आपको पता नहीं कि भारत में हर वर्ष लगभग 1600 लोग हिरासत में दम तोड़ देते हैं। ये विचाराधीन कैदी हैं, जिनका दोष सिर्ध होने से पहले ही व्यवस्था उन्हें मार डालती है । भीड़-भाड़ वाली जेलों में विचाराधीन कैदियों की कैद हमारे लोकतांत्रिक समाज के साथ-साथ कानून के शासन की विफलता का आईना है। इनमें कई लोगों का तो ट्रायल तक शुरु नहीं हुआ होता….
आठ महीने से अधिक समय तक जेल में रहने के बावजूद स्वामी का मुकदमा शुरू नहीं हुआ था । स्वामी किस्मतवाले थे कि उनकी मौत समाचारपत्रों कि सुर्खीयां बन सकी, लेकिन उन हजारों लोगों के बारे में सोचिए जो कोर्ट की तारीखों के इंतजार में सलाखों के पीछे दिन गिनते-गिनते दम तोड़ देते हैं, लेकिन उनकी तारीख नहीं आती । उनमें से कई लोग तो बकरी चोरी जैसे छोटे-मोटे मामलों में हिरासत में कैद रहते हैं, लेकिन उनकी सुनवाई की तारीख न आने के कारण कैद में ही मौत हो है। क्या कोई व्यवस्था इतनी निष्ठुर, इतनी असंवैदनशील हो सकती है ? और जिस व्यवस्था में कमजोरों को न्याय नहीं मिल सके, उस देश, उस सिस्टम का नाश तो हो ही जाना चाहिए ।
भारत की जेलों में 70% के करीब कैदी विचाराधीन हैं । ये हमारी नहीं बल्कि केन्द्र सरकार की रिपोर्ट कहती है । इन विचाराधीन कैदियों के कारण जेलों में जगह नहीं बची । लेकिन अदालतों में मुकदमों की संख्या इतनी ज्यादा है कि इनमें से अधिकांश विचाराधीन कैदियों का नंबर तक नहीं आ पाता। ये कहने की जरुरत नहीं कि इनमें से अधिकांश विचाराधीन कैदी गरीब हैं, जो महंगे वकील नहीं रख पाते, जिनकी ऊपर तक पहुंच और पैरवी नहीं है। लेकिन क्या ऐसे लोगों को न्याय पाने का अधिकार नहीं है ? ऐसी व्यवस्था चलाने वालों को रात भर नींद कैसे ा जाती है ?
विश्व मानवाधिकार की रिपोर्ट कहती है कि भारत की पुलिस व्यवस्था क्रूर (Brutal) है और पुलिसिया अनुसंधान में वैज्ञानिक तरीकों का अभाव है। विश्व मानवाधिकार की रिपोर्ट कहती है कि भारत में मुकदमें लड़ने वाले 80% लोग सिर्फ आरोपी को कुछ दिनों के लिए जेल भिजवाने से ही संतुष्ट हो जाते हैं, भले ही वो लचर अनुसंधान के कारण बाद में जमानत लेकर बाहर आ जाए । सिर्फ 20% मामलों में ही सजा हो पाती है । इसका एक बड़ा कारण केसों का अंबार और पुलिस द्वारा सबूत जुटाने की प्रक्रिया में गड़बड़ी है ।