कौशलेन्द्र कौशल
यह शीर्षक आपको आपत्तिजनक लगे तो डाॅ. काशीनाथ सिंह के निर्देशन में समर्पित एतद् संबंधित शोधपत्र का अवलोकन करें अथवा अपने किसी बनारसी सखा से संपर्क कर बनारस की गलियों के इस आधिकारिक शब्द का महात्म्य जान लें… खैर, रविवारी और गुरुवारी बेबाक के बुधवारी लेखन प्रायोजन पर आता हूँ. याद है मुझे वर्ष 1999 की सर्द दोपहरी.
उस वक्त मैं अविभाजित बिहार में प्रसारित एक बहुचर्चित व लोकप्रिय साप्ताहिक समाचार पत्र का संपादक हुआ करता था. उस दिन रांची स्थित अपने कार्यालय में बैठा मैं चिंतन नहीं चिंता कर रहा था. आश्चर्य न करें अखबार का संपादक चिंतन से ज्यादा चिंता ही करता है. जमाना बदल गया है किन्तु संपादकों की दशा मीडिया में अभी भी कमोबेश वही है.
वो अखबार की पेस्टींग का जमाना था. शुक्रवार की वो दोपहर मुझे भारी लग रही थी.सहकर्मियों ने दफ्तर पहुंचते ही सूचना दे दी थी कि पेस्टर नहीं आये.16 पन्नों की पेस्टींग यदि शुक्रवार को शुरू नहीं हुई तो शनिवार को छपाई करवा पाना मुश्किल था.
उसी वक्त रेमंड नामक दरबान सह आदेश पाल ने आकर कहा – सर, टंडवा से एक आदमी आप से मिलने आये हैं. झल्लाहट पर काबू कर मैंने कहा – भेज दो भाई.
एक कृशकाय युवक ने मेरे कक्ष में प्रवेश कर कहा- परनाम सर. प्रणाम की जगह परनाम उच्चारण ने मुझे उक्त सज्जन की ओर निहारने को मजबूर कर दिया.
बिखरे बाल, रंगीन कुर्ता, फुल पैंट, चमरौंधा चप्पल और कंधे से लटकता लंबा झोला. एकटक मैं उक्त युवक को नजरअंदाज करने की मंशा लिए नाप ही रहा था कि युवक ने कहा- सर, मेरा नाम विनोद राज है. मैंने अनमने ढंग से बैठने को कहा.
बैठते-बैठते युवक ने 2-3 किताबें और अखबारों के कतरन से भरी फाईल झोले से निकाल कर मेरी मेज पर रख दी.
किताबों पर नजर डालता उससे पहले ही सज्जन बोल पड़े- मैं लेखक, कवि, चित्रकार और पत्रकार हूँ. मैं आपके साथ जुड़ना चाहता हूँ.
मैंने टालते हुये कहा- अच्छा आप अपना बायोडाटा छोड़ दीजिये. मैं आपसे संपर्क कर लूंगा. ऐसा है कि आज हमारी पेस्टींग का दिन है और पेस्टर के नहीं आने के कारण थोड़ा परेशान हूँ.
युवक ने कहा- हम पेस्टींग भी जानते हैं सर. ये देखिये, अपनी पुस्तक ‘ज्योत्सना में तन्हाई’ दिखाते हुए युवक ने कहा- मैंने स्वयं लिखा और इसकी जिल्दसाजी की है. किताब हाथ में लेकर मैंने पन्ने पलटे. सुन्दर अक्षरों में हस्तलिखित और संयोजित काव्य रचना थी.
मैंने कहा- अखबार की पेस्टींग कर लेंगे! जी सर, कोई दिक्कत नहीं.
मेरे मन में आया चलो आजमा लेते हैं. मैंने सहकर्मी जयदीप देवघरिया ( फिलहाल बतौर ब्यृरो प्रमुख, झारखंड ‘टाईम्स आॅफ इंडिया ‘ में कार्यरत) को बुलवाया.
https://www.newsbatao.com/binod-kumar-raj-vidrohi-ki-kavita-teri-bhonsadi-ke/?fbclid=IwAR03LycMBBh1LWEG_UMfPW1cdGEjP-8cTMEh8kD39Qd6JaGxy-CHGD-v_lk
जयदीप उस वक्त मेरे चहेतों में शामिल था. अनुवाद, रिपोर्टिंग व संपादकीय लगभग सभी विधाओं में उसे मैं आजमाता रहता था.
कुछ महीने पहले ही वो मुझसे योग प्रतिस्पर्धा के एक कार्यक्रम की स्पांसरसिप के लिये मिलने आया था. मुझे उसका समर्पण भा गया और मैंने उसे अखबार से जोड़ लिया. अखबारी दुनिया से कोई संबंध न होने के कारण वो हिचका.मैंने कहा- अंग्रेजी से हिन्दी अनुवाद कर लोगे? उसने कहा- जी, कोशिश कर सकता हूँ. अनुवाद की कोशिश से शुरू हुई उसकी अखबारी यात्रा समर्पण योग में तब्दील होती गई और वो मेरा विश्वासपात्र बन गया.
जयदीप ने आते ही पुछा- सर पेस्टींग का क्या होगा? मैं मुस्कुरा पड़ा और बोला – हो जायेगा भाई. बैठो और इनसे मिलो- ये हैं विनोद राज जी, लेखक, कवि, चित्रकार और पत्रकार.
जयदीप हंस पड़ा और बोला- बाबा रे… सबकुछ. मैंने विनोद जी कि किताबें और कतरनों की फाईल जयदीप को थमा दी. उसने उन्हें सरसरी निगाह से देखा और चिंता भाव से फिर कहा- सर, पेस्टींग का क्या होगा?
मैंने विनोद राज की ओर इशारा करते हुये कहा- ले जाओ इनको और करवा लो पेस्टींग. उसे विश्वास नहीं हुआ. उसने कहा- सर कविता नहीं लिखनी पेस्टींग करनी है.
मैं बोला- हाँ भाई, कवि जी ही पेस्टींग करेंगे. कलाकार हैं ये. इन्होंने अपनी ये किताबें स्वयं लिखी, संजोई और प्रकाशित की है.
जयदीप तुम फीचर के पन्नों की प्रिंट फाईल निकालो और पेस्टींग करवाओ.
करीब 3 से 4 बज चुके होंगे. जयदीप विनोद राज को लेकर संपादकीय कक्ष में पेस्टींग टेबल पर पहुँच गया.
मैं आदतन प्रयोधर्मी, पेस्टींग की चिंता भूल संपादकीय, कवर स्टोरी और अपने काॅलम बेबाक के सामग्री चिंतन में लग गया.
रात के करीब 8 बजे अपने कक्ष से संपादकीय कक्ष के बीच लगे शीशे का पर्दा हटाकर अंदर की गतिविधियां देखने लगा. तभी जयदीप की नजर मुझसे टकरा गईं. मैंने उसे अपने कक्ष में आने का इशारा किया.
क्या हुआ भाई? जयदीप ने कहा फीचर के 9 पन्नों की पेस्टींग तो हो गई है लेकिन पूरा नहीं मान सकते.
मैंने पूछा- पेस्टींग हो गई लेकिन पूरा नहीं मतलब?
मायूसी के साथ जयदीप ने कहा- मेहता जी नहीं आये हैं तो रेखाचित्र की जगह खाली पड़ी है.
उमेश मेहता जी, एक राष्ट्रीयकृत बैंक के प्रबंधक व उम्दा श्रेणी के रेखाचित्रकार. उनके रेखाचित्रों की लकीरें हमारे अखबार के फीचर पन्नों को जीवंत कर देती थीं.
मैंने कहा – कोई नहीं कल सुबह मेहता जी आकर रेखाचित्र खींच देंगे तुम संपादकीय पन्ने की पेस्टींग करवा लो भाई. आज 10 पन्ने हो जायेंगे तो कल शाम तक 6 और पेस्ट होकर तैयार हो जायेगा.
जयदीप ने कहा- आपने भी तो अब तक बेबाक और संपादकीय लिखकर नहीं दिया है, दे दिये होते तो संपादकीय पन्ना भी तैयार हो जाता सर.
मैंने कहा- अच्छा काली जी से पुछा तुमने? काली किंकर मिश्र (संप्रति बतौर मुख्य उप संपादक ” दैनिक जागरण ” में सेवारत) हमारी टीम में फीचर और क्षेत्रीय पन्नों को अपने उप संपादन से धार देते थे.
मैंने काली जी को अपने कक्ष में बुलवाया और कहा- क्या बंधु ,मैंने बेबाक और संपादकीय लिख कर नहीं दिया आपको? काली जी अपने ठेठ भागलपुरी अंदाज में बोले- कबका, कंपोज और प्रूफ होकर रेडी है.
जयदीप ने उत्साहित होकर कहा- दीजिये ना, अभी 10 वां पन्ना भी रेडी करवा देता हूँ.हम सब एकबारगी हंस पड़े.
9 बजे के आसपास सबलोग विदा हो गये. मैं भी विनोद जी के रहने और खाने की व्यवस्था दुरुस्त कर करीब 10 बजे घर चला गया.
शनिवार को मैं सुबह 9 बजे ही दफ़्तर पहुँच गया. अपने कक्ष में न जाकर संपादकीय कक्ष में प्रवेश कर गया. आश्चर्यचकित रह गया मैं. मैंने देखा कि तैयार पन्नों में रेखांकन का काम भी हो चुका था!
मैंने रेमंड से पुछा- मेहता जी आये थे क्याउसने कहा – नहीं तो सर. उसी वक़्त स्नान कर विनोद राज पहुँच गये. सर,रेखाचित्र खींच कर पन्नों पर सेट कर दिया है यदि आप को पसंद हो तो चिपका दूं.
मैं उनका चेहरा निहारता रह गया और बोला- कलाकार जी आप सोये नहीं रात भर! वो बोले – बड़ी मच्छड़ न काट रहा था सर. सोचे कि मच्छड़ का इंजेक्शन लेने से बेहतर है रेखाचित्र खींच डालूं. रोमांच में मैंने कवि जी को भींच लिया.
कृशकाय युवक विनोद राज उसके बाद मेरे सहकर्मी से अनन्य बन गये.
मेरे साथ ऐसा नाता जुड़ा कवि जी का जो सहोदरों में भी नहीं मिलता.
मेरे साथ ही विनोद राज विशाखापट्टनम और हैदराबाद भी गये और लंबे समय तक उनकी पत्रकारिता और रचनाधर्मिता जारी रही.
2004-5 के आसपास वे झारखंड लौट आये और उनकी सृजन यात्रा जारी है. संप्रति +2 विधालय में अपनी सेवायें दे रहे मेरे कवि जी कब विनोद राज से डाॅ. विनोद राज विद्रोही बन गये पता ही नहीं चला. विभिन्न प्रकाशनों से सैकड़ों पद्य और गद्य रचनाओं को आंचलिक शैली में मूर्त कर चुके मेरे अनन्य कवि जी की नवीनतम रचना को पढ़ मैं स्वयं को रोक नहीं पाया और बेबाक ले हाज़िर हो गया.
(लेखक झारखण्ड के जाने-माने स्तंभकार हैं….लेख में दिए गए विचार उनके निजी हैं..)