नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने जम्मू-कश्मीर प्रशासन को तीखी फटकार लगाते हुए कहा कि उसने 16 वर्षों तक उच्च न्यायालय के आदेश का पालन नहीं किया, जिससे दैनिक वेतनभोगी कर्मचारी अनावश्यक कानूनी लड़ाई में फंसे रहे। न्यायमूर्ति सूर्य कांत और न्यायमूर्ति एन. कोटिश्वर सिंह की पीठ ने इस मामले को “अहंकार और कानून की अवहेलना का प्रत्यक्ष उदाहरण” बताया।
अदालत ने राज्य अधिकारियों के रवैये पर असंतोष व्यक्त किया, जो खुद को कानून से ऊपर समझते हैं। पीठ ने स्पष्ट किया कि 2007 में दिया गया उच्च न्यायालय का आदेश केवल कागजों तक सीमित रह गया, जबकि पीड़ित कर्मचारी 14 से 19 वर्षों तक सरकारी विभाग में काम कर चुके थे।
अदालत की सख्त टिप्पणी और दंड
सुप्रीम कोर्ट ने उच्च न्यायालय द्वारा लगाए गए ₹25,000 के जुर्माने को बरकरार रखते हुए कहा कि प्रशासन इसे उस अधिकारी के वेतन से वसूल सकता है, जिसकी लापरवाही के कारण मामला इतने वर्षों तक लंबित रहा। अदालत ने यह भी संकेत दिया कि वह अधिकारियों पर कड़ा दंड लगाने और अनुशासनात्मक कार्रवाई की सिफारिश करने पर विचार कर सकती थी, लेकिन चूंकि अवमानना की कार्यवाही अभी भी लंबित है, इसलिए एकल न्यायाधीश को मामले की साप्ताहिक सुनवाई करने का निर्देश दिया गया।
लंबे समय से चली आ रही कानूनी लड़ाई
2006 में ग्रामीण विकास विभाग के दैनिक वेतनभोगियों ने अदालत का रुख किया था, यह मांग करते हुए कि उनकी सेवाओं को SRO 64 (1994) के तहत नियमित किया जाए। हालांकि 2007 में उनके पक्ष में फैसला सुनाया गया था, लेकिन प्रशासन ने इसे लागू करने में 16 साल की देरी की, जिससे कर्मचारी अनिश्चितता और कानूनी परेशानियों में पड़े रहे।
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले ने जम्मू-कश्मीर प्रशासन की अकर्मण्यता और न्यायिक आदेशों की अवहेलना को उजागर किया है। यह मामला प्रशासनिक जवाबदेही और सुशासन की कमी को लेकर गंभीर प्रश्न खड़े करता है।