अगर झारखंड में मगही-भोजपुरी बनाम आदिवासी भाषाओं के बीच खाई चौड़ी करने की राजनीति हो रही है तो यह अकारण नहीं है । इसी तरह बाहरी-भीतरी, दिकू, मूलवासी, आदिवासी, झारखंडी अस्मिता जैसे शब्दों की गूंज अचानक से राजनीतिक गलियारों में तैरने लगी है ।
ममता बनर्जी की जीत से सीख रहे हैं हेमंत
बंगाल में ममता बनर्जी ने भाजपा का विजय रथ रोक दिया तो इसके पीछे सबसे बड़ी वजह थी बंगाली अस्मिता। ममता बनर्जी ने बड़ी चतुराई से भाजपा को बाहरी और हिंदी भाषी राज्यों की पार्टी घोषित करवा दिया। उन्होंने अपनी पार्टी तृणमूल को बंगाल की मिट्टी में जन्मी, बंगाली अस्मिता की रक्षा करने वाला साबित कर दिया। इससे बंगाली भाषी वोटों को एकजुट करने में मदद मिली ।
झारखंड में भी बंगाल का प्रयोग दोहराने की तैयारी
सबसे पहले रामेश्वर उरावं ने मारवाड़ी समाज को आदिवासी जमीन का लुटेरा बताया। इसके बाद मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने मगही-भोजपुरी बनाम आदिवासी भाषा का विवाद छेड़ दिया। इसके बाद भी तमाम किंतु-परन्तु के बावजूद मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन, वित्त मंत्री रामेश्वर उरावं ने पर-प्रांतियो पर हमले जारी रखे । हो सकता है कि अगला चुनाव आने तक इस भावनात्मक मुद्दे को और हवा दी जाय ?
क्या है हेमंत और रामेश्वर उरावं का कैलकुलेशन ?
हेमंत सोरेन को पता है कि वो क्या कर रहे हैं और क्यों कर रहे हैं। वे 26-27% आदिवासियों और 12-14% अल्पसंख्यकों का मजबूत कैडर तैयार कर रहे हैं। इसमें मूलवासी सदान का अगर एक चौथाई हिस्सा भी जुड़ जाय तो यह कंबिनेशन अपराजित हो जाता है। हेमंत सोरेन हो या रामेश्वर उरावं, उनको प्रवासी वोटरों की उतनी परवाह है भी नहीं, लेकिन उन्हें पता है कि राजद या एक दो छोटी पार्टियों से गठबंधन करने पर कुछ न कुछ प्रवासी वोट मिल ही जाएंगे ।
कुल मिलाकर हेमंत सोरेन अपने लिए 50% भावनात्मक वोटरों का बेस तैयार कर रहे हैं। विरोधी जितना इसपर हंगामा करेंगे, हेमंत-रामेश्वर उरावं की जोड़ी को उतना ही फायदा होगा।