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माओवादी, वाम बुद्धिजीवी, मीडिया और सिस्टम के गठजोड़ को बेनकाब करती है बस्तर

जासं, रांची : डायरेक्टर सुदीप्तो सेन और निर्माता विपुल अमृतलाल शाह की बस्तर-द नक्सल स्टोरी आज रिलीज हो रही है। गुरुवार को विश्व संवाद केंद्र की ओर से रांची के पीवीआर में इसका प्रीमियर था। बस्तर-द नक्सल स्टोरी को प्रोपगंडा फिल्म कहानी उनके लिए लाजिमी है, जो इसके हिस्से रहे हैं। नक्सलबाड़ी से चली किसानों के हितों की लड़ाई की यह आंधी जब देश के आधे हिस्से को ढंक लिया तब कुछ दिखाई नहीं देता था। यह फिल्म गरीबी, शोषण के नाम पर हिंसक लाल विचारधारा की आड़ लेकर अपने निरपराध आदिवासियों-ग्रामीणों की हत्या को जायज ठहराने की इस मुहिम में शामिल लोगों के चेहरे से उनके नकाब को उतारती है। दृश्यों और संवादों की बेहतर जुगलबंदी और जंगल की अद्भुत सिनेमेटाग्राफी दर्शकों को बांध कर रखती है। अदा शर्मा की अदाकारी देखने योग्य है।


माओवादियों ने शोषण के नाम पर कितने लोगों की निर्मम हत्या की, यह आसानी से पता कर सकते हैं। पर, इनकी हत्या को उचित और तार्किक ठहराने वाले मीडिया एक वर्ग, सिस्टम और शहरों के वाम बुद्धिजीवियों ने अपने ही देश को आजादी के नाम पर टुकड़े-टुकड़े करने का ख्वाब देखने वालों के असली चेहरे को भी यह दिखाती है। जो पात्र हैं, चाहें वे बुद्धिजीवी हों, या गांधीवादी, उन्हें आप आसानी से पहचान सकते हैं। याद करिए, आप श्रीनगर में तिरंगा नहीं फहरा सकते थे। यही हाल बस्तर और नक्सल क्षेत्र का था। इनका अपना कानून था। इनके पास वाम शब्दावली थी। नक्सलबाड़ी से लेकर आंध्र से अबूझमाड़ तक, झारखंड से गढ़ चिरौली तक…इन्होंने एक अपनी अलग दुनिया बसा ली थी। चारू मजूमदार ने जो विष बेल लगाया था, उसने हजारों मांओं का कोख सूनी कर दिया। गांधी के देश में, जो आज हर कदम पर गांधी का नाम जपते हैं, वे उनके अहिंसा के मार्ग को छोड़ हिंसा की वकालत करते हैं। नक्सलवाद को बनाए रखने में उस फंड का भी अहम योगदान था, जो केंद्र सरकार भेजती थी। आज बस्तर हो, झारखंड हो, गढ़ चिरौली हो, शांति से सांस लेने की ओर बढ़ रहे हैं। अपने बेटों को विदेश में पढ़ाने वाले, अकूल लेवी वसूलने वालों ने आदिवासी इलाकों में सिवाय खूनी खेल के कोई काम नहीं किया। पर, इनकी आग में आदिवासी इलाका झुलस गया और हजारों लोग इस आग में जल गए। मानवाधिकार आयोग के आंसू तभी निकलते जब कोई माओवादी मारा जाता, पुलिस शहीद हो जाते तो इनके आंसू सूख जाते। देश को खंडित करने के मंसूबे में ये माओवादी दुनिया के आतंकी संगठनों से हाथ मिला चुके थे। विपुल शाह ने इस पक्ष को भी ओझल होने नहीं दिया है। बस्तर से दिल्ली तक सिस्टम माओवादियों के पक्ष में कैसे काम करता था, यह छिपी बात नहीं है। किशन को जब कांटे की तरह फेंक दिया गया तो बंगाल भी शांत हो गया। पहले इस माओवादी का भरपूर इस्तेमाल एक पार्टी ने किया और फिर किनारे लगा दिया। अंत में, इस फिल्म को अवश्य देखें। यह आई ओपेन फिल्म है।

समाज के अलग अलग वर्ग से आये दर्शकों ने सराहा। मीडिया,सामाजिक संगठन, सोशल इनफ़्ल्यूएंसर्स, सामाजिक कार्यकर्ता, चिकित्सक, शिक्षा जगत के लोग, स्टूडेंट्स , फ़िल्म समीक्षक इत्यादि शामिल रहे।

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