नई दिल्ली: भारत और यूनाइटेड किंगडम (UK) के बीच कॉम्प्रिहेन्सिव इकनॉमिक एंड ट्रेड एग्रीमेंट (CETA) के साथ-साथ दोनों देशों ने डबल कंट्रीब्यूशन कन्वेंशन (DCC) पर भी सहमति बनाई है। इसका उद्देश्य दोनों देशों के सेवा क्षेत्र, खासकर तकनीक और वित्तीय सेवाओं में गति लाना और व्यवसाय करने में लागत कम करना है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और UK के प्रधानमंत्री कीर स्टारमर ने 24 जुलाई को लंदन में उच्च स्तरीय बैठक के बाद यह घोषणा की।
DCC क्या है?
DCC एक विशेष प्रकार का सोशल सिक्योरिटी समझौता है, जिसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि जब कोई कर्मचारी किसी अन्य देश में अस्थायी रूप से काम करता है, तो उसे और उसके नियोक्ता को दोनों देशों में सोशल सिक्योरिटी कंट्रीब्यूशन (जैसे भारत का PF या UK का NICs) न भरना पड़े।
यह सिर्फ योगदानों से जुड़ा होता है, न कि पेंशन या अन्य लाभों की पात्रता से।
DCC की ज़रूरत क्यों थी?
अब तक भारत और UK के बीच कोई सोशल सिक्योरिटी समझौता नहीं था। इसके कारण दोनों देशों के पेशेवरों को विदेश में काम के दौरान दोहरी कटौती का सामना करना पड़ता था। यह कंपनियों के लिए एक “छुपा हुआ खर्च” बन गया था और व्यापार की लागत को बढ़ा रहा था।
DCC के तहत सहमति क्या बनी है?
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भारत और UK अब एक औपचारिक DCC समझौते पर काम कर रहे हैं, जो CETA लागू होने के साथ प्रभाव में आएगा।
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अस्थायी रूप से दूसरे देश में भेजे गए कर्मचारी (Detached Workers) को अब 36 महीनों तक अपने देश में ही योगदान देना होगा।
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यानी UK में काम करने वाले भारतीय प्रोफेशनल्स को वहां का NICs नहीं भरना होगा (और इसके उलट भी)।
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हालांकि, इस दौरान वे दूसरे देश की स्टेट पेंशन या सामाजिक लाभों के पात्र नहीं होंगे।
इसका असर क्या होगा?
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व्यापार करना आसान होगा और लागत घटेगी।
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UK की सरकार के मुताबिक, यह समझौता UK की जीडीपी में हर साल 4.8 बिलियन पाउंड और मजदूरी में 2.2 बिलियन पाउंड की वृद्धि ला सकता है।
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यह समझौता कर्मचारियों के योगदान रिकॉर्ड को बंटने से बचाएगा और कार्यकाल के दौरान अनावश्यक सामाजिक सुरक्षा भुगतान से राहत देगा।
सरकारें अब इस DCC के औपचारिक पाठ और दिशा-निर्देश तय करेंगी। कंपनियों और कर्मचारियों को आगे की घोषणाओं पर नजर रखनी चाहिए।