जातस्य हि ध्रुवो मृत्युः ध्रुवं जन्म मृतस्य च।
न त्वं शोचितुमर्हसि॥ (गीता 2/27)
अर्थात जिसने जन्म लिया है उसकी मृत्यु निश्चित है और मृत्यु के पश्चात पुनर्जन्म भी सुनिश्चित है। अतः अपने अपरिहार्य कर्तव्यपालन में तुम्हें शोक नहीं करना चाहिए।
मृत्यु: जीवन का सबसे महत्वपूर्ण सत्य
मृत्यु जीवन का संभवतः सबसे महत्वपूर्ण आविष्कार है। यह परिवर्तन का वाहक है। हर सुबह यदि हम स्वयं से यह प्रश्न करें – “अगर आज मेरे जीवन का अंतिम दिन हो, तो क्या मैं वही करना चाहूंगा जो आज करने जा रहा हूँ?” – तो इस विचार पर चिंतन निश्चित रूप से हमारे जीवन में बदलाव लाएगा। मृत्यु एक अटल सत्य है, जिसे नकारा नहीं जा सकता। यह विचार हमें या तो उत्साह से भर सकता है या नैराश्य में डुबो सकता है।
मृत्यु का चिंतन जीवन को सीमितता का अहसास कराता है। जब राजा परीक्षित को ज्ञात हुआ कि उनकी मृत्यु मात्र सात दिनों में निश्चित है, तो उन्होंने वही किया जो उन्हें सर्वोत्तम लगा – उन्होंने आत्मज्ञान की खोज में अपना समय लगाया।
भारतीय दर्शन में आत्मा का स्वरूप
भारतीय दर्शन में आत्मा को नित्य, अजर-अमर और अविनाशी माना गया है। कठोपनिषद् (1/2/18) में कहा गया है:
न जायते म्रियते वा विपश्चिन्नायं कुतश्चिन्न बभूव कश्चित्। अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे॥
अर्थात आत्मा का जन्म या मृत्यु नहीं होती। यह सदा रहने वाली है। शरीर के नष्ट होने पर भी आत्मा नष्ट नहीं होती।
पुनर्जन्म: भारतीय दर्शन की महत्वपूर्ण अवधारणा
पुनर्जन्म भारतीय दर्शन की एक महत्वपूर्ण अवधारणा है, जो यह मानती है कि आत्मा एक शरीर को त्यागकर दूसरे शरीर में प्रवेश करती है। यह विचार हिंदू, बौद्ध, जैन और सिख परंपराओं में महत्वपूर्ण स्थान रखता है।
ऋग्वेद में पुनर्जन्म को आत्मा की यात्रा के रूप में वर्णित किया गया है:
“जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर नये वस्त्र धारण करता है, वैसे ही आत्मा पुराने शरीर को त्यागकर नये शरीर को धारण करती है।”
बृहदारण्यक उपनिषद में भी इस विचार का समर्थन किया गया है कि आत्मा पुराने शरीर को छोड़कर नए शरीर में प्रवेश करती है।
मोक्ष: अंतिम लक्ष्य
सनातन धर्म में मोक्ष को जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति का अंतिम लक्ष्य माना गया है। मोक्ष प्राप्त करने के बाद आत्मा किसी नए शरीर में प्रवेश नहीं करती, बल्कि वह ब्रह्म में विलीन हो जाती है।
मोक्ष के चार प्रमुख मार्ग माने गए हैं:
- कर्मयोग – निष्काम भाव से कर्म करना
- ज्ञानयोग – आत्मा और ब्रह्म का ज्ञान प्राप्त करना
- भक्तियोग – ईश्वर की भक्ति और समर्पण
- राजयोग – ध्यान और साधना द्वारा आत्मबोध
भगवद गीता (2.47) में श्रीकृष्ण कहते हैं:
“कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।” अर्थात मनुष्य का अधिकार केवल कर्म करने में है, लेकिन कर्म के फल की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए।
मोक्ष प्राप्ति का सर्वोत्तम मार्ग: कर्मयोग
गीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को कर्मयोग का उपदेश देते हुए कहा कि निष्काम कर्म ही मोक्ष प्राप्ति का सबसे सरल मार्ग है। जब कोई व्यक्ति अपने कर्मों को ईश्वर को समर्पित करता है, तो अहंकार नष्ट हो जाता है, जिससे वह जन्म-मरण के बंधनों से मुक्त हो जाता है।
“सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज। अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥” (गीता 18/66)
अर्थात सभी धर्मों को त्यागकर मेरी शरण में आओ। मैं तुम्हें सभी पापों से मुक्त कर दूँगा, तुम शोक मत करो।
निष्कर्ष
मृत्यु, पुनर्जन्म और मोक्ष सनातन धर्म के गूढ़ रहस्य हैं। मृत्यु से भयभीत होने की बजाय हमें इसे आत्मज्ञान प्राप्त करने के अवसर के रूप में देखना चाहिए। पुनर्जन्म की अवधारणा हमें यह सिखाती है कि हमारे कर्मों का प्रभाव केवल इस जन्म तक सीमित नहीं होता, बल्कि वे हमारे अगले जन्म को भी प्रभावित करते हैं। अंततः, मोक्ष ही हमारा अंतिम लक्ष्य है, जहाँ आत्मा जन्म-मरण के बंधन से मुक्त होकर परमात्मा में विलीन हो जाती है।
इसलिए, कर्मयोग को अपनाकर, निष्काम भाव से कर्म करते हुए, भक्ति और ज्ञान को साधन बनाकर हम मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं।