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विद्रोही को मधुशाला मिल ही जाती है…

कवि एवं लेखक विनोद कुमार विद्रोही के साथ स्तंभकार कुमार कौशलेन्द्र
कवि एवं लेखक विनोद कुमार विद्रोही के साथ स्तंभकार कुमार कौशलेन्द्र

कुमार कौशलेन्द्र

 

आज सही मायने में मुझे डा. हरिवंश राय बच्चन की ‘मधुशाला’ का मर्म समझ में आया. पंक्तियाँ याद हैं ना आपको- “राह पकड़ तू एक चला चल, मिल जायेगी मधुशाला”….
वास्तव में यदि मानव ठान ले कि उसका ठौर कहां होगा और सतत् प्रयत्नों की आहूति देता जाये तो अपनी नियति स्वयं निर्धारित कर सकता है.
मेरे उपरोक्त वाक्यांश प्रथम द्रृष्टया आपको सुविचारित प्रशस्ति भूमिका सरीखे लग सकते हैं क्योंकि आम परिपाटी ऐसी ही रही है. अपने लगभग दो दशक से आगे बढ़ चले पत्रकारिता जीवन में पुस्तक समीक्षा व अन्य लेखकीय विधाओं से दर्शक की भांति बाह्य अवलोकी ही बना रहा. राजनीति-समाज व अन्य विषयों पर लिखता रहा किन्तु किसी रचनाकार की रचनाओं की समीक्षा से बचता रहा. किन्तु आज जब मेरे विनोद अपनी नवीन कृतियों – ‘जी साहेब : जोहार, इश्क़-ए-हजारीबाग और विनोद कुमार राज ‘विद्रोही’ : व्यक्तित्व व कृतित्व के साथ अचानक मुझसे मिलने पहुंचे तो मैं अतीत के पन्नों में खो गया.
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समय का पहिया घूमता गया और और विनोद मेरे अनन्य सहयोगी के साथ-साथ परिजन सरीखे बन गये.
उस समय की उनकी गद्य-पद्य रचनाओं, स्वलिखित-संपादित और सुसज्जित कृतियों में मुझे ग्रामीण जीवन विसंगतियों का दर्द और आंचलिक सौंदर्य का चित्रण तो दिखता था किन्तु मुझे इनमें अपने विनोद का भविष्य बिल्कुल नहीं दिखता था.
मैं कहता था कवि जी मेरी बात मानिये और दर्द के दरिया से निकलिये नहीं तो जीवन में नकारात्मकता हावी हो जायेगी.
कवि जी सकुचाते-मुस्कुराते कहते थे- नहीं ना सर, मेरी कलम और कूची से नकारात्मकता की स्याही नहीं सुनहले भविष्य की संरचना हो रही है.बस मुझे अपने मन को पन्नों पर उकेरते रहने दीजिये.
मैं विनोद जी के दृढ़ संकल्प को जवानी का उबाल करार दे कहा करता था- कवि जी, आप झारखंड के फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ बनकर ही रहेंगे.
मेरे उन शब्दों की परिणति इतनी जीवंत होगी मैंने कल्पना भी नहीं की थी. सच कहूं तो जब विनोद राज विद्रोही बनते-बनते अध्यापन के पेशे में आ गये तो मुझे बहुत खुशी हुई .मेरे मन ने कहा- चलो अब मेरे विनोद का जीवन सामान्य ढर्रे पर चलेगा.
कहते हैं ना- ‘मेरे मन कछु और है विधिना के कछु और’. सच में नियति ने विनोद जी के लिये एक अहम मुकाम तय कर रखा है और डा.बच्चन की पंक्तियों को आत्मसात करते हुये विनोद कुमार राज ‘विद्रोही’ ने अपनी मधुशाला खोज ही डाली.
क्यों करवाते हो दंगे, ज्योत्सना में तन्हाई, काग़ज़ की नाव, यादों की चिरईं, गुलदस्ता, चुन्दरु बाबा, क्यों, कलम के आंसू, क्योंकि मैं लड़की हूँ, झारखंड का साहित्य और साहित्यकार, झारखंड की संस्कृति, झारखंड के लोक-नृत्य, झारखंड की प्रसिद्ध नारियाँ, झारखंड की लोक-चित्रकला, झारखंड की नदियाँ, जलप्रपात व डैम, झारखंड के पर्व-त्यौहार एवं मेला, रेगिस्तान का सफ़र, बोलती रेखाएं, ओह कावेरी! सिर्फ एक बार कहा होता, क्योंकि मैं एक लड़की हूँ (द्वितीय संस्करण) की राह पकड़ अपनी रचनाधर्मिता को जीवंत करते मेरे विनोद इश्क़-ए-हजारीबाग में डूबते- उतराते साहित्य जगत की मधुशाला में आज सशक्त हस्ताक्षर बन ‘जोहार’ कर रहे हैं.
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