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Bengal Elections 2021: नकली मीडिया खड़ा कर चुनाव जीतने की रणनीति

क्या आपने “आरामबाग टीवी” का नाम सुना है ? क्या बंगाल सरकार की मीडिया लिस्ट में “हल्दिया टीवी” का नाम भी है । इन दोनों प्रश्नों का जवाब है “ना” । लेकिन बंगाल के चुनाव में “आरामबाग टीवी” के पत्रकार भी हाथों में बूम लेकर घूम रहे हैं और हल्दिया टीवी के भी ।

बंगाल का चुनावी माहौल बदल सकते हैं सैकड़ों की संख्या में माइक लेकर घूम रहे फर्जी पत्रकार
बंगाल का चुनावी माहौल बदल सकते हैं सैकड़ों की संख्या में माइक लेकर घूम रहे फर्जी पत्रकार

इस तरह के करीब 60-70 टीवी चैनल के पत्रकार हाथों में माइक लेकर बंगाल के गांव-शहरों की खाक छान रहे हैं।  इनका टेलीविजन चैनल कहीं नहीं चलता बल्कि इनका सारा कामकाज पार्टियों के दफ्तर से संचालित होता है।  और इस तरह के फर्जी पत्रकारों को बकायदा प्रेस कार्ड, मोबाइल, माइक वगैरह दिया जाता है।

बिहार में कारगर रही थी प्रशांत किशोर की ये रणनीति 

इन तथाकथित चैनलों के काम करने का तरीका देखिए। हर राजनीतिक दल 5-15 हजार रुपये प्रति माह के हिसाब से बेरोजगार युवाओं को काम के लिए नियुक्त करती है । जैसे-जैसे चुनाव के चरण बीतते जाते हैं,  चेहरे भी बदल जाते हैं।

उदाहरण के तौर पर पहले चरण में आरामबाग टीवी के 12-14 पत्रकार उन क्षेत्रों में घूम-घूम कर लोगों की राय लेते हैं जहां पहले चरण में चुनाव हैं।  ये अपनी फीड पार्टी दफ्तर में बैठे एडिटर के पास भेजते हैं। फिर उस बातचीत को अपने हिसाब से फेर-बदल कर उस विधानसभा के विभिन्न WhatsApp group में भेजा जाता है।  पार्टी के कार्यकर्ताओं को इन्हें वायरल करना होता है।

एक अनुमान के मुताबिक बिहार विधानसभा चुनाव के पहले चरण की लगभग 15 सीटों पर इन फर्जी पत्रकारों ने माहौल बनाकर रिजल्ट उलट-पुलट  कर दिया था ।

चुनाव आयोग को इसपर रोक लगानी चाहिए- शुवेन्दु अधिकारी 

नंदीग्राम से ममता बनर्जी के खिलाफ़ चुनाव लड़ रहे शुवेन्दु अधिकारी कहते हैं-”

500 करोड़ में खरीदे गए प्रशांत किशोर की टीम के 15 लड़के नकली पत्रकारों के वेश में आते हैं और 2-3 खाली कुर्सी को ढूंढकर यह साबित करने की कोशिश होती है कि हमारी सभा खाली पड़ी है। यह पाखंड अब छुपा नहीं रहा

कम पैसे में बड़ा असर

किसी भी बड़े अखबार या टीवी चैनल पर विज्ञापन देने के लिए नेताओं और राजनीतिक दलों को अच्छा खासा पैसा खर्च करना पड़ता है, लेकिन यहां 15 से 50 हजार खर्च कर महीने भर का प्रचार मिल जाता है।  आम वोटर भी इन्हें असली मीडिया ही समझते हैं।  बेरोजगारो को भी एक महीने के लिए पत्रकार का काम मिल जाता है।  चुनाव खत्म होते ही इनकी पत्रकारिता खत्म।

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