*डॉ. सुशील कुमार तिवारी*
स्मरण कीजिए, जब पिछले वर्ष 5 अगस्त को भूमि पूजन के साथ राम मंदिर का निर्माण कार्य का शुभारंभ हुआ था। जब घट घट के स्वामी श्री राम अपने जन्मभूमि के पुनः स्वामी बने। जब आध्यात्मिक और अलौकिक जगत में स्थापित सत्य भौतिक रूप से स्वीकार किया गया। जब सभी के ह्रदयवासी राम अपने ही साकेत अर्थात अयोध्य्वासी बने।
कई राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं भौगोलिक घटनाएं या अदालती निर्णय भी अविस्मरणीय सौगात दे देते हैं। यह किसी व्यक्ति, समाज, धर्म या समुदाय की विजय जैसी विवेचनाओं से परे होती हैं। कुछ ऐसा ही था श्री राम जन्मभूमि से सबंधित अदालती निर्णय या फिर उसके बाद 5 अगस्त के ओ शुभ दिन जब भव्य दिव्य श्री राम मंदिर के आस्था केंद्र के निर्माण की शुरुआत की गई।
हम सब आपसी चर्चा,अदालती निर्णय या 5 अगस्त 2020 से पहले भी करते थे, अब भी करते हैं। व्यक्तिगत अनुभव है कि तब इन बातों में धार्मिक कटुता, अनपेक्षित शब्दों का प्रयोग, आपसी वैमनस्यता या अप्रजातांत्रिक व्यवहार ज्यादा देखने सुनने को मिलते थे। अब केवल परिपक्वता दिखती है कि यह बहुत पहले हो जाता तो हम मिलकर देश के साथ कुछ आगे बढ़े होते या बहुत अच्छा हुआ, हम कब तक ऐसी बातों को खिंचते रहेंगे। हाँ, अभी भी निर्मूल और मूर्खता भरी बातें जैसे अस्पताल, विद्यालय आदि करनेवाले लोग हैं, लेकिन उनकी संख्या पहले भी मुट्ठीभर थी और अब नगण्य हो गयी है। ये बातें भ्रम में डालनेवाली थीं क्योंकि प्रजातंत्र की सफलता का उद्देश्य जो इस कार्य से पूर्ण हुआ है वो शिक्षा और स्वास्थ्य के पैमानों से कम थोड़े न है। समाज यदि सैकड़ों वर्षों के समस्या का समाधान करता है और वैमनस्यता को छोड़ एक साथ आगे बढ़ने का प्रण लेता है तो ये उपलब्धि सबसे बड़ी है जो समाज और राष्ट्र निर्माण का परिचायक है।

दूसरी महत्वपूर्ण बात है कि केवल एक ही धर्म से राम को बांधना और उनके गुणों को दरकिनार करना भी उचित नहीं है। स्वयं अन्य धर्मों के प्रतिनिधि भी मानते हैं और दूसरे देशों में प्रचलित कलाओं या कथाओं के नैतिक और आदर्श चित्रण में भी राम विद्यमान हैं। किन्तु उससे भी बड़ी बात है प्रजातन्त्र और समानता के शुभचिंतकों को रामराज्य की अवधारणा को चरितार्थ करना। प्रजातांत्रिक देश की चुनौतियां हों या वैश्विक परिदृश्य में उन देशों या प्रजातन्त्र के विरूद्ध हीं षड्यंत्र का विषय हो, रामराज्य ही एक मात्र आशा की किरण के रूप में दिखाई देती है। इसमें कोई संशय नहीं कि प्रजातंत्र जीने की पद्धति है और सर्वथा उपयुक्त शासन संचालन पद्धति भी है। इन्ही दोनों वाक्यों का सार राम का जीवन और इस कारण प्रजातंत्र की कसौटी पर खरा रामराज्य है। यह मर्यादापुरुषोत्तम के देवत्व का व्यक्ति रूप में चारित्रिक विश्लेषण से समझा जा सकता है। यह कठिन तब हो जाता है जब एक धर्म विशेष या समुदाय से राम को जोड़कर प्रजातन्त्र के आदर्शों को अनदेखा कर दें। बहुत सारी बातें प्रजातंत्र और धर्मनिरपेक्षता के नाम पर की जाती हैं और आपको राम की प्रजातांत्रिक और मानव धर्म की विशेषताओं से परे रखा जाता है। रामराज्य पुकार के कह रहा है कि तत्कालीन राममय वातावरण, समय और घटनाओं का विश्लेषण करें और आदर्श प्रजातंत्र से समानता की रणनीति की सिख लें । किन्तु हम समस्याओं और चुनौतियों से घिरे रहेंगें मगर राम से निकले, रामराज्य से प्राप्त समाधान पर नही जायेंगें। क्योंकि हमको तो धर्मनिरपेक्ष दिखना है और तथाकथित शब्दों के जाल में उनके अर्थों का बलि चढ़ानेवाले नेताओं के कुचक्र में ही रहना है। किसीके भी कहने पर हम राम के प्रजातांत्रिक शासन और मानव मात्र के लिए आदर्श चरित्र को नही देख पा रहे या सच नही सुन पा रहे तो फिर तो अपना दोष भी कम नहीं।

इस बात को उतनी आसानी से कोई ग्रहण नही कर पाता तो इसके पीछे एक तर्क विचारणीय अवश्य है। कोई कहे कि राम तो राजा थे, प्रजातन्त्र के आदर्श कैसे बने? ये सच है कि वो राजा थे पर उनकी
जीवन पद्धति ही पूर्ण रूप से प्रजातांत्रिक थी । इसलिए उनके राज से प्रजातांत्रिक मूल्यों को सीखना चाहिए। उदाहरण स्वरूप रात्रि में सर्वसामान्य का वेश बदलकर अपनी प्रजा का कष्ट को समझना और दिन में उन कष्टों के निवारण के कार्य करना। सर्व साधारण प्रजा की बात को इतना महत्व देना कि अपनी पत्नी तक को जंगल में छोड़ देना। इसके सकारात्मक पहलू को छोड़ नारीवादी का तमगा पहनकर कहा जाता है ये नारी के साथ अन्याय था अर्थात राम प्रजा में समानता लाये किन्तु स्त्रियों के साथ असमानता का व्यावहार क्यों? अब क्या राम ने ये निर्णय लेकर स्वयं के साथ वैसा हीं व्यवहार नही किया? क्या उतने ही दुखी राम न थे? अगर ऐसा न होता तो अश्वमेघ यज्ञ के समय जब दूसरी शादी लगभग अवश्यम्भावी था, तब राजा राम अश्वमेघ यज्ञ को छोड़ने को तैयार हो गए। उन्हीं के कहने पर सीता की ही प्रतिमा को पत्नी के रूप में प्रतिष्ठित करके यज्ञ किया जा सका। ऐसा था नारी के प्रति सम्मान,परस्पर प्रेम और त्याग की भावना। राम राजा थे, देदीप्यमान चमक थी चेहरे पर और सर्वशक्तिशाली भी। वे चाहते तो सुंदर से सुंदर राजकुमारी से शादी कर सकते थे। किंतु उस समय जब कई शादियां की जा सकती थीं, राम ने तब नारी सम्मान की पराकष्ठा दिखाई।
प्रजातन्त्र की बात करनेवाले स्वयम्भू प्रजातांत्रिक नेताओं और व्यक्तियों से यदि पूछा जाए कि उन्हें याद है पिछली बार कब प्रजातांत्रिक मूल्यों पर आधारित कोई काम किया था, तो अधिकांश आपसे ‘वो मूल्य हैं क्या’, यही पूछते रह जाएंगे। ऐसे छद्म विद्वानों से ऐसी दृष्टि की उम्मीद कम हैं कि राम राजा होकर भी प्रजातांत्रिक मूल्य को व्यवहार से प्रदर्शित कर रहें हैं। दूसरी ओर तथ्य तो ये है कि ऐसे लोग ज्यादा हैं जो बात तो करते हैं प्रजातांत्रिक मूल्यों की, लेकिन सर्वसामान्य जनता को वो समझ ही नही पाते और न ही सामान्य जनता उनसे जुड़ पाती है। इसका कारण है वो स्वयं राजा की तरह अपने परिवारवालों में राज्य की सत्ता और धन बाँट देते हैं। स्वार्थी होकर अपनी पीढ़ियों की सोचते हैं और सामने वाली जनता की बात का कोई मूल्य नही रहता। ऐसे लोग प्रजातन्त्र के राजा बनने की लालसा रखते हैं।
इस तरह यह स्पष्ट है कि राजा राम राजा होकर भी प्रजातन्त्र के लिए आदर्श स्थापित करते हैं, जबकि प्रजातन्त्र के काल में छद्म विद्वान या नेता राजा की तरह प्रजातांत्रिक मूल्यों के विरोधी भी हो सकते हैं। ऐसे में अध्यात्म की दृष्टि से प्राप्त राममय जीवन को सफल रामराज्य का कारण मानते हुए वैसी प्रजातांत्रिक जीवन पद्धति और रणनीति विकसित करनी होगी। तभी हम प्रजातन्त्र की सफलता को लेकर भी आश्वस्त हो सकते हैं।
( लेखक भारतीय शिक्षण मंडल, झारखंड प्रान्त के सदस्य एवं जमशेदपुर महिला महाविद्यालय, स्नात्तकोत्तर शिक्षा विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर हैं )