नई दिल्ली: जब आप कोई कॉस्मेटिक या स्किन-केयर प्रोडक्ट खरीदते हैं, तो उस पर एक “क्रूरता-मुक्त” (Cruelty-Free) टैग के साथ एक खरगोश का लोगो देखा होगा। यह इस बात का संकेत है कि वह उत्पाद जानवरों पर परीक्षण किए बिना बनाया गया है।
ऐसे प्रयोगों में जानवरों को तकलीफ देने को सही ठहराने वाली सोच को ही प्रजातिवाद (Speciesism) कहा जाता है — यानी यह मानना कि इंसानों की जान कीमती है लेकिन जानवरों की नहीं।
प्रजातिवाद के खिलाफ विश्व दिवस हर साल 5 जून को मनाया जाता है। इस दिन का उद्देश्य है कि जैसे हम नस्लभेद और लिंगभेद के खिलाफ आवाज उठाते हैं, वैसे ही जानवरों के साथ भेदभाव के खिलाफ भी सोच बदलें।
क्या है प्रजातिवाद?
यह शब्द सबसे पहले 1970 में मनोवैज्ञानिक और पशु अधिकार कार्यकर्ता रिचर्ड डी. रायडर ने इस्तेमाल किया था। इसके बाद इसे प्रसिद्ध दार्शनिक पीटर सिंगर ने आगे बढ़ाया।
यह विचार कहता है कि अगर कोई जीव संवेदनशील है और दर्द महसूस कर सकता है, तो हमें उसे महज़ “जानवर” कहकर कमतर नहीं आंकना चाहिए।
हम किन जानवरों से प्यार करते हैं और किन्हें खाते हैं:
कुत्ते-बिल्ली को पालतू और प्रिय मानते हैं, लेकिन मुर्गी, सूअर या मछलियों को सिर्फ खाने के लिए पाला जाता है। यह भेदभाव ही speciesism है।
भारत में स्थिति कैसी है?
भारत ने 2014 में जानवरों पर सौंदर्य प्रसाधन परीक्षण पर प्रतिबंध लगाया था और 2020 में ऐसे उत्पादों के आयात पर भी रोक लगाई। यह एक ऐतिहासिक कदम था।
लेकिन दूसरी ओर, 2023-24 में भारत ने 10.25 मिलियन टन मांस का उत्पादन किया, जो 2017-18 की तुलना में 50% अधिक है।
प्रजातिवाद का पर्यावरणीय असर:
2021 की एक रिपोर्ट के अनुसार, फैक्टरी फार्मिंग से 11.41% ग्रीनहाउस गैसें उत्सर्जित होती हैं, जो वाहनों से होने वाले उत्सर्जन (13.7%) के करीब है।
इसलिए, प्रजातिवाद के खिलाफ लड़ाई सिर्फ जानवरों के लिए नहीं, बल्कि मानवता और पर्यावरण की रक्षा के लिए भी जरूरी है। शायद यह कोई संयोग नहीं कि विश्व पर्यावरण दिवस और प्रजातिवाद के खिलाफ विश्व दिवस एक ही दिन (5 जून) को मनाए जाते हैं।