के.कौशलेन्द्र
मैथिली में एक कहावत है-
“मन हरखित तं गावी गीत”.
अर्थ सहज है कि मन प्रफुल्लित हो तो गाने का मूड बनता है.
हेमंत जी, आप झारखंड के मुख्यमंत्री हैं. आपकी विनम्रता मिश्रित राजनीतिक कौशल का मैं कायल हूँ, यह लिखने में भी मुझे गुरेज़ नहीं. किन्तु आज आप के लिये सरकार शब्द का संबोधन भारी मन से कर रहा हूँ.
जब आप अभियंत्रण के छात्र थे, उस वक़्त से आपके संयम, विनम्रता और अन्तर्मुखी व्यक्तित्व का अवलोकन करता आ रहा हूँ. आपके स्वर्गीय अग्रज दुर्गा सोरेन जी से भी आपके व्यक्तित्व के स्नेहिल चित्रण का साक्षी बनने का अवसर मिला है.
आज आप सरकार चला रहे हैं. सरकार चल भी रही है किन्तु पारंपरिक सरकार और हेमंत सोरेन से अपेक्षित सरकार का फर्क साफ़ दिख रहा है.
मैं आलोचना की मंशा से नहीं बल्कि आपके भावी राजनीतिक सफर के मद्देनजर कुछ बिन्दुओं पर आपका ध्यान आक्रृष्ट कराने की जुर्रत कर रहा हूँ.
क्या आपको नही लगता कि आप अपने चाहने वालों से दूर होते जा रहे हैं. झारखंड के कोने-कोने उठने वाली आवाज- ‘हेमंत हैं तो हिम्मत है’, का स्वर क्या आपको मद्धिम होता नहीं लग रहा? घुमक्कड़ हूँ, शहरी व सूदूर ग्रामीण झारखंड के कोने- कोने का चक्कर लगा कर आपकी सरकार के काम-काज पर जनमानस को टटोलता रहता हूँ.
बदलाव की आस की आस्था तो दिखी किन्तु बदलाव नहीं दिखा.
पूर्ववर्ती सरकार को जिस कोटरी की गिरफ्त में बता कर जनविरोधी नीतियों का विरोध कर आप सत्तासीन हुये, क्या वही कोटरी आप पर हावी नहीं होती जा रही?
सत्ता की कोटरी जिसे आम भाषा में सत्ता के दलाल कहते हैं, क्या उनका बोलबाला नहीं बढता जा रहा?
प्रतिपक्ष का क्या है, उसे तो अवसर की तलाश रहेगी ही ताकि आपकी छवि को धूमिल कर अपनी गद्दी सुनिश्चित करे.वक्त मिले तो चिंतन करियेगा.
आज संवाद तंत्र की बात करता हूँ. मीडिया बड़ा हो या छोटा… पत्रकार धुरंधर हों या नवोदित… सबके आप चहेते रहे हैं. लेकिन क्या छोटों को भाई और बड़े को भैया संबोधित कर दिल जीत लेने वाले हेमंत अपने चहेतों से दूर नहीं होते जा रहे?
आप मुख्यमंत्री हैं.. व्यस्ततम दिनचर्या होती है. इसी वजह से कई सहयोगी भी बहाल कर रखना स्वभाविक भी है. किन्तु आपके सहयोगी क्या आपकी छवि के अनुरूप आचरण कर रहे हैं?
आपके बहुत पुराने सहयोगी जो फिलहाल आधिकारिक तौर पर आपके मीडिया सलाहकार हैं. क्या वे प्रेस/मीडिया के लोगों को
सुलभ हैं?
एक चींटी भी हाथी को भारी पड़ जाती है श्रीमान. कोई पत्रकार यदि कुछ असहज या आपत्तिजनक लिखता है तो मीडिया सलाहकार उससे तथ्यात्मक संवाद कर मसले को जन्नोमुखी बना दे यही तो उसकी योग्यता का कौशल होता है ना. ठीक इसके विपरीत केस-मुकदमा और थाना पुलिस की धौंसपट्टी आपकी छवि के साथ खिलवाड़ नही तो और क्या है?
आपके मातहत विभाग सूचना व जनसंपर्क से मिलने वाले राजप्रसाद अर्थात् विज्ञापन बंद कर और चिरौरी पूजन के उपरांत पुनः विज्ञापन अमृत वितरण की नीति क्या पूर्ववर्ती सरकार का अनुसरण नहीं है?
अखबार/ मीडिया छोटा या बड़ा नहीं होता सरकार. सबकी अपनी पहुँच और पाठक वर्ग होता है. किसी के लिये सूरमा और किसी के लिये काजल वाली नीति अंकुश का तरीका बिलकुल नही हो सकता.
हाँ, नाजायज पर अंकुश बिलकुल जायज है किंतु थाना पुलिस और केस मुकदमा किसी भी शासक के लिये हितकारी नहीं रहा, इतिहास गवाह है.
विधि- व्यवस्था ही तो शासन का इकबाल होता है. यदि मीडिया शासन को विधि-व्यवस्था और शासकीय शक्ति के दुरुपयोग को उजागर करता है तो वो सरकार की मदद ही तो कर रहा है.
राजनीति में कुछ अखबार/मीडिया उलटबांसी भी करते हैं किन्तु विचारधारा का विरोध दमदार विचारधारा के प्रवर्तन से होता है, धौंस पट्टी से नहीं.
गड़बड़ी है तो सुधार सरकार का अख्तियार है. संवाद- विचार -विमर्श और जन्नोथान मुखी क्रियान्वयन ही जनतंत्र का सौंदर्य है.
आरोप लगते हैं तो उसका वैधानिक प्रतिवाद होना चाहिये.आरोप और घाव ढांपने से जख्म गहरा ही होता है.
हेमंत जी, आप जननेता हैं और आपकी छवि पर जनविश्वास कायम है. पुनः दुहरा रहा हूँ – अपने नायक की छवि को बरकरार रखिये नहीं तो कोटरी आश्रित सत्ता कभी भी दगा दे सकती है.
खैर, आपके आपके पास तो सलाहकारों की फौज है, उनसे इतना जरूर पूछियेगा कि हेमंत है तो हिम्मत है का नारा बुलंद करने वालों के आंसू ने आह का रुप ले लिया तो फौज जिम्मेदारियों के बोझ तले दबेगी कि हेमंत ?
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और यहां प्रकट किए गए उनके विचार निजी हैं)
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