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1971 की जंग में गोला-बारूद ढोया, अब भी तैयार हूं देश की सेवा को: बंगाल के 75 वर्षीय शारदा प्रसाद दास का जज़्बा

जलपाईगुड़ी, 15 मई 2025: भारत-बांग्लादेश सीमा के पास स्थित जलपाईगुड़ी के नलजোआ पाड़ा गांव के निवासी शारदा प्रसाद दास ने न सिर्फ 1965 बल्कि 1971 की जंग को भी बेहद करीब से देखा है। उस वक्त वो सिर्फ आठवीं कक्षा के छात्र थे, लेकिन उनके हौसले और देशभक्ति की भावना ने उन्हें सेना की मदद करने के लिए प्रेरित किया।

1971 की जंग के दौरान शारदा ने अपने दोस्तों के साथ कंधे पर गोला-बारूद ढोकर सेना को सहयोग किया। उनके गांव के तालाब को खाली कर उसमें बंकर बनाया गया, जिसमें लोग गोलाबारी के समय शरण लेते थे। उनका कहना है कि अगर देश को उनकी फिर से जरूरत पड़ी, तो वो आज भी मैदान में उतरने को तैयार हैं।

शारदा प्रसाद दास वर्तमान में भारत-बांग्लादेश सीमा सुरक्षा समिति के संयुक्त सचिव हैं और उन्होंने आतंकवाद के खिलाफ ‘ऑपरेशन सिंदूर’ का समर्थन किया है। हालांकि वो युद्ध के पक्ष में नहीं हैं। उनका कहना है, “युद्ध का मतलब है गरीबी, भूख और आम लोगों की चीखें।”

दास ने बताया कि 1971 की लड़ाई में जलपाईगुड़ी सीमा बेहद अहम थी। बिन्नागुड़ी आर्मी कैंप में भारतीय सेना और बीएसएफ की भूमिका निर्णायक रही। दास ने अपने स्कूल शिक्षक और स्वतंत्रता सेनानी सुधांशु मजूमदार से प्रेरणा ली, जो नेताजी सुभाष चंद्र बोस के अनुयायी थे और 1958 के बेरूबाड़ी आंदोलन के नेता भी थे।

“हमने अपने गुरु सुधांशु मजूमदार के नेतृत्व में पाकिस्तान सीमा तक गोले-बारूद पहुंचाया। उस समय माणिकगंज हाई स्कूल में पढ़ते हुए मैंने और मेरे दोस्त नाज़िर हुसैन हक और बिधान रॉय ने कंधों पर गोले-बारूद लादकर सिंह रोड, काइरी हाथखोला, जडरभांगा और बरा शशि तक पहुंचाया।”

वर्तमान हालात पर बात करते हुए दास ने कहा, “हम सरकार के आतंकवाद विरोधी कदमों का समर्थन करते हैं। मैं फॉरवर्ड ब्लॉक का सदस्य हूं और अगर जरूरत पड़ी, तो फिर से बीएसएफ या सेना की मदद करूंगा।”

शांति की अपील करते हुए उन्होंने कहा, “हमने युद्ध का दर्द देखा है। लोग भाग गए, परिवार बिछड़ गए, कई मारे गए। मौजूदा कट्टरपंथी ताकतों को यह समझना चाहिए कि बातचीत से समाधान संभव है। यही सबसे बेहतर रास्ता है।”

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