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कोरोना महामारी में सबसे अधिक त्रस्त हुए मजदूर, लॉक डाउन में कभी घर कभी पलायन बना मजबूरी , रोजी

प्रणव मुरारी
सतगावां। प्रखण्ड में लगातार कोरोना महामारी से मजदूरों पर संकट का बादल छाया हुआ है जिसे दूर दूर तक किसी को रास्ता नजर नही आ रहा है।विगत वर्ष मार्च महीने में लॉक डाउन लगने के बाद महाराष्ट्र ,दिल्ली,चेन्नई,यूपी और अन्य महानगरों में काम करने वाले मजदूर कितनी जद्दोजहद के बाद अपना घर वापसी किये थे । रास्ते मे अनेक कठिनाइयां झेलने के बाबजूद अपने घर परिवार से मिलने की जिद्द उन्हें बरबस गांव खींच लाया।मालूम हो की लॉक डाउन ने मजदूरों को बेरोजगारी की राह पर लाकर खड़ा कर दिया था जिसको घर,गांव के अलावा कोई रास्ता नही था लेकिन मजदूर अपनी वेवसी से लाचार लॉक डाउन टूटने के बाद फिर से पलायन कर गया। आलम यह है की महानगरों के फैक्ट्रियों में भी आधे वेतन व दिहाड़ी से काम चलाना पड़ रहा है कारण की कम्पनी में भी काम की काफी कमी बताया जा रहा है।सुदूरवर्ती सतगावां प्रखण्ड में रोजगार का किसी भी तरह से सृजन नही होने से रोज यहां लोग पलायन करने को मजबूर है।हालांकि सरकार  महत्वाकांक्षी योजना मनरेगा के द्वारा मजदूरों को रोजगार मुहैया कराने का दावा करती है लेकिन हकीकत यही है की इतनी कम न्यूनतम मजदूरी में कोई मजदूर काम करना नही चाहता है बाबजूद प्रखण्ड में मनरेगा का कार्य धड़ल्ले से हो रहा है।ज्ञात हो की झारखण्ड में मनरेगा मजदूरों को सबसे ज्यादा मजदूरी तय किया गया है लेकिन यह काफी नही है।दूसरी लहर के प्रकोप के उतपन्न स्थिति के बाद शहर छोड़कर फिर से मजदूर गांव की ओर लौट रहे हैं हालांकि इस लॉक डाउन में गाड़ियों का परिचालन बंद नही किया गया है जिससे लोगों को परेशानी कम हो रही है लेकिन गांव में संक्रमण का खतरा आने वाले समय मे बढ़ने की आशंका है।आने वाले प्रवासी मजदूरों का चेकअप नही होना से प्रवासी मजदूर लापरवाह होकर घूम रहे है और शादी विवाह में भी शिरकत कर रहे है ऐसे में संक्रमण का खतरा भी मंडरा रहा है।सरकार द्वारा प्रत्येक परिवार को मुफ्त चावल देने की भी घोषणा हुई है और विगत वर्ष भी इस तरह का लाभ दिया गया था लेकिन मजदूर कहते है की केवल चावल से जिंदगी का गुजारा नही हो सकता है ।माना जाय तो कृषि प्रधान प्रखण्ड सतगावां में बहुतायत में लोग कृषि पर निर्भर है कितने को अपनी भूमि है तो कितने भूमिहीन बटाईदारी करके अपने परिवार का भरण पोषण कर रहे हैं लेकिन मंहगाई की मार ने मजदूरों को कृषि से भी हाथ खीचना पड़ रहा है और मजबूरन शहर जाने को विवश है।मजदूरों की जिंदगी तो जैसे किस्मत की तार पर टिकी है शहर में कोरोना की मार और गांव में पेट की मार।
इस पर गाना चरितार्थ होता है की कभी “बेकसी ने मारा कभी बेबसी ने मारा।

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