परंपरा के नाम पर समाजिक विनाश का खेल है भँदवाटाँड़ का बाऊड़ी मेला- मुर्गा लड़ाई

परंपरा के नाम पर समाजिक विनाश का खेल है भँदवाटाँड़ का बाऊड़ी मेला-मुर्गा लड़ाई
आज भी रूढ़ीवाद की पराकाष्ठा बीच फँसा समाज…लाखों मुर्गों की मौत पर अपनी तकदीर निहार रहा है
धनबाद :
      ज्ञात हो कि “मुर्गा लड़ाई”नाम से लगने बाले इस मेला रूपी बड़े महोत्सव में बॉस के सैकडों बाड़े होंगे
चारो तरफ जुआ-शराब से सजी  खुबसुरती बीच लाखों रूपये के सट्टा बाजार के बाजीगरों की होड़ मची होगी
परन्तू समाजिक विनाश रूपी इस पारंपरिक महोत्सव के उमंग से विकास की राह चढ़े राज्य की छवि तो। दागदार जरूर नजर आयेगी।
        अतीत के चर्चित इस बाऊड़ी मेला में लाखों मुर्गों की शहादत पर लोग अपने भाग्य फल का संधान करते आ रहे है। मुरलीडीह से सटा रक्त रंजित भँदवार टॉड़ का यह वही ऐतिहासिक मैदान है जहाँ मुगल काल, ब्रितानी हुकूमत से लेकर वर्तमान तक लाखों शब्दहीन मुर्गो से जबरन उसकी वीरता और पराक्रम के प्रदर्शन के नाम पर शहादत दिलायी जा रही है।
रूढ़ीबाद की विचारधारा से पौराणिक अवधारणा और फिर पारंपरिक रिवाज में फँसी हिंसक संस्कृति पर लोगों का जो भी तर्क हो पर स्याह परंपरा के लिवास से सजी यह संस्कृति आदर्श समाज के लिये बहूत घातक बन चुका है।
व्यवस्था भी ऐसी कि इसके विरुद्ध राज्य की विधि व्यवस्था मुक-वघिर है, वुद्धिजीवी मौन है
जागरूकता के नाम पर दुकान चलाने बाली संस्थायें समाजिक चेतना को संदेश शब्द का आभाव है…यह एक दुर्भाग्य ही तो है।
          उत्सव ऐसा कि बेजुबान मुर्गों की टांगों से चाकू पिरोकर अपने ही बेकुसूर जमात की हत्या को आतूर कराना,और फिर जीत के रक्त रंजित दृश्य पर भाग्य फल का पैमाना फिट करना, यह समाज की लुप्त होती संवेदना के साथ-साथ वौद्धिक दरिद्रता को दर्शा रहा है। 21वीं सदी में समाज में व्याप्त ऐसी स्याह परंपरा को तो  स्वीकार नहीं किया जा सकता।

महोत्सव की एतिहासिक पहलू…

            महुदा बस्ती-मुरलीडीह मध्य पड़ने वाला रक्त रंजीत भॅदवार टॉड़ मैदान जहाँ अतीत से ऐतिहासिक रूप से मुर्गा लड़ाई का आयोजन है। कहते है कि मुगल काल पश्चात ब्रितानी हुकूमत के वक्त वर्तमान महुदा बस्ती गाँव के चौराहों पर महतो,माँझी समेत अन्य समुदाय बाँउड़ी अर्थात शरद ऋतू के अंत और बसंत ऋतू के आगमन पर अपने-अपने मुर्गों को लड़ाकर प्राप्त हार-जीत के नतीजों पर वर्ष भर तक अपने भाग्य फल का निर्धारण करते थे।
बताते है कि कालांतर में समाज की तत्कालीन विचारधारा ने इसे परंपरा से जोड़कर क्षेत्र के भॅदवार टॉड़ मैदान में शिफ्ट कर दिया। हलाँकि दुसरी मान्यता के अनुसार तत्कालीन डुमरा राजा का नव वर्ष पर इस क्षेत्र के रियासत दान साह परिवार के घर आना, सुड़िया तालाब से मछली का शिकार कर लड़ते हुए मुर्गो के अंतकाल तक के शौर्य और पराक्रम के दृश्य से संदेश वोध को प्राप्त करना भी बतायाजाता है
 लेकिन वर्षों बाद इस रूढ़ीवादी परंपरा ने समाजिक व्यवस्था को गुलाम बनाकर विनाश की दिशा दे दी।
आज यह परंपरा एक विशाल उत्सव का रूप में तब्दील है। वर्ष के 13 जनवरी के बॉउड़ी मेला के नाम से चर्चित इस कार्यक्रम में एक तरह जहाँ लाखों मुर्गों की लडाई में उसके मौत और हार-जीत पर व्यापक सट्टेबाजी का धंधा चलता है तो वहीं दुसरी तरफ क्षेत्र मदिरामय होकर जुआ के वाजार में तब्दील होता रहा है।
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